Maharana Raj Singh और श्री नाथ जी एवं द्वारकाधीश की मूर्तियाँ का मेवाड़ आगमन

Maharana Raj Singh एक प्रजा पालक, वीर एवं धर्म को महत्व देने वाले Maharana थे। इन्होंने औरंगजेब की हिन्दू विरोधी गतिविधियों का विरोध किया था। औरंगजेब ने जब हिन्दू मंदिर तोड़ने का आदेश दिया तब गोसाई लोग नें Maharana Raj Singh से सहायता मांगी जिसका विस्तृत वर्णन इस article में किया गया है। 

1669 ई. में औरंगजेब ने जब हिन्दू मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया तब मुगल सेना ने हिन्दू धर्म के मंदिरों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया जिसके चलते हजारो मंदिर तोड़ दिये गये उन मंदिरों के स्थान पर मस्जिद बनाई गईं। 
जिसके चलते हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं को गहरा आघात पहुंचा। 

Maharana Raj Singh


Maharana Raj Singh औरंगजेब की इस नीति के विरोध में थे। जिस कारण कई मंदिरों के पुजारी ने Maharana Raj Singh से सहायता मांगी। 

द्वारिकाधीश जी की मूर्ति मेवाड़ का मेवाड़ आगमन - 

औरंगजेब ने वल्लभ संप्रदाय की Bhagwan Govardhan (गोवर्धन) की सभी प्रमुख मूर्तियाँ को नष्ट करने का निर्णय अपनी मुगल सेना को दिया।

तब द्वारकाधीश जी की मूर्ति Mewar में लायी गयी। 

Maharana Raj Singh के आदेश से इस मूर्ति की  प्रतिष्ठा कांकरोली के मंदिर में करवाई गई जो वर्तमान समय में  द्वारिकाधीश जी के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

श्रीनाथ जी की मूर्ति का मेवाड़ में आगमन - 

गिरिराज पर्वत जो कि mathura के पास स्थित है उस पर एक श्री नाथ जी का mandir था। जहाँ की व्यवस्था गोसाई समुदाय के लोग संभालते थे। औरंगजेब ने अपना एक आदमी गोसाई लोगों के पास पहुचा कर कहलवाया की तुम यहा से निकल जाओ नहीं तो मुगल सेना द्वारा तुम यहा से 
निकाल दिये जाओगे। 

Maharana Raj Singh

इस बात से गोसाई विट्ठलदास जी के पुत्र गिरीधारी जी के पुत्र दामोदर जी घबराए और 10 अक्टूबर 1669 ई. श्रीनाथ जी की मूर्ति को एक रथ में बिठाकर अपने काका गोविंद जी बालकृष्ण जी वल्लभ जी के साथ आगरा पहुचें। 

26 अक्टूबर 1669 ई. 16 दिन आगरा में छिपे रहने के बाद ये लोग विभिन्न स्थानो पर गये पर किसी भी राजा ने इनको औरंगजेब के भय से शरण नहीं दे सकें। फिर ये लोग किशनगढ़ के Raja Man sing के पास पहुंचे तो मानसिंह ने कहा कि हम भी आपको ज़ाहिरा तोर पर तो शरण नहीं दे सकते है। अगर आप छिपकर रहना पसंद करे तो आप रुक सकते हैं। इन लोगों नें गर्मियों के दिन किशनगढ़ में ही गुजारे। 

इसके के बाद इन्होंने वहा से प्रस्थान करा परन्तु 2 वर्षो तक भटकने पर भी औरंगजेब के भय के कारण इनकी किसी ने ज़ाहिरा तौर पर सहायता नहीं की। 

तब दामोदर दास जी के काका गोविंद सिंह जी नें मेवाड़ पहुँचकर Maharana Raj Singh जी को कहा कि आप के वंश ने सदा सनातन संस्कृति की रक्षा की है। आप लोगों को एकलिंग का दीवान कहा जाता है। और उनसे सहायता मांगी। 

तब Maharana Raj Singh जी ने उत्तर दिया में यह वचन तो मैं नहीं दे सकता कि औरंगजेब श्रीनाथ जी को स्पर्श भी नहीं कर पाएगा पर मैं यह आपको अवश्य कह सकता हूँ कि एकलिंग नाथ जी की सौगन्ध औरंगजेब के अधर्मी हाथ श्रीनाथ जी को छुए उसके पहले एक लाख 
मेवाड़ियों के सिर कटेंगे तभी औरंगजेब श्रीनाथ जी भगवान की इस मूर्ति को हाथ लगा सकेगा।

17 नवम्बर 1671 ई. को गोविंद जी खुश होकर चाम्पासेणी गए और वहां से सभी गोसाई समुदाय के लोगों के साथ shree nath ji की मूर्ति को लेकर Mewar के लिए रवाना हुए।

20 फरवरी, 1672 ई. को udaipur से 12 कोस उत्तर की तरफ बनास नदी के तीर सिंहाड़ गांव जो वर्तमान में नाथद्वारा के नाम से जाना जाता है मे मंदिर बनवाकर श्रीनाथ जी की मूर्ति की स्थापना की गई। ऐसा भी कहा जाता है कि जब यह मूर्ति सिंहाड़ गांव के मे पहुची तो जिस रथ मे श्रीनाथ जी विराजमान थे वह मिटी में अटक गया लाख कोशिश करने के बाद भी रथ निकला नहीं। जिस कारणवश श्रीनाथ की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा उसी गांव में कर दी गई।

आशा है आपको हमारा article "Maharana Raj Singh और श्री नाथ जी एवं द्वारकाधीश की मूर्तियाँ का मेवाड़ आगमन" पसंद आया होगा इसके संबंधित आपका यदि कोई प्रश्न हो तो comment में बताये।

Maharana Raj Singh जन्म एवं परिवार परिचय -

Maharana Raj Singh मेवाड़ के परम प्रतापी शासक थे। Maharana Raj Singh एक वीर, प्रजापालक, एवं दानी शासक थे। इन्होंने मुगल बादशाह औरंगजेब के हिन्दू धर्म विरोधी गतिविधियों का खुल कर विरोध किया था। Maharana Raj Singh के जन्म एवं परिवार सम्बंधित जानकारी आज हम आपको इस article में उपलब्ध कराने का प्रयास करेंगे।



जन्म एवं राज्याभिषेक - 

Maharana Raj Singh का जन्म 24 सितंबर 1629 को हुआ था। Maharana Raj Singh जी अपने पूर्वज Maharana pratap के भाँती ही वीर एवं देशभक्त थे। 

Maharana Raj Singh का राज्याभिषेक जब हुआ तब उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। उनका राज्याभिषेक 1652 में उनके पिता के देहांत के बाद हुआ था। Maharana Raj Singh की का राज्याभिषेक महाराणा उदयसिंह द्वारा निर्मित नौचौकी महल में हुआ था। ऊंदरी गांव के भील मुखिया ने अपना अंगूठा चीरकर Maharana raj singh का राजतिलक किया था।

Maharana Raj Singh




     4 फरवरी 1653 ई. Maharana Raj Singh के राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया था। इस अवसर पर राणा जी ने चाँदी का तुलादान किया था। इसी वर्ष Maharana Raj Singh ने अपनी बहन का विवाह बीकानेर के राजा कर्णसिंह राठौड़ के पुत्र से करवा दिया था। 

1653 ई. मार्च में Maharana Raj Singh ने अपने Maharana बनने की ख़बर कल्याण झाला के द्वारा शाहजहां तक पहुंचाई mugal badshah शाहजहाँ ने Maharana Raj Singh के लिए 5000 जात व 5000 सवार के मनसब का संदेश व टीका दस्तूर के सामान सहित कल्याण झाला व नरदमन गौड़ को Maharana Raj Singh के पास भेजा।

परिवार परिचय - 

Maharana Raj Singh के पिता का नाम Maharana Jagat singh जी एवं उनकी माता का नाम महारानी मेडतणीजी थी।

Maharana Raj Singh जी की रानियों के नाम - 

(1) महारानी हाड़ी कुंवराबाई 

(2) रानी भटियाणी कृष्णकंवर 

(3) रानी राठौड़ आनंद कंवर 

(4) रानी झाली केसर कंवर 

(5) रानी पंवार सदा कंवर 

(6) रानी झाली रूप कंवर 

(7) रानी वीरपुरी दुर्गावती 

(8 ) रानी चौहान जगीस कंवर 

(9) रानी पंवार बदन कंवर 

(10) रानी चौहान रतन कंवर 

(11) रानी झाली पैप कंवर 

(12) रानी झाली रतन कंवर 

(13) रानी पंवार आस कंवर 

(14) रानी खीचण सूरज कंवर 

(15) रानी राठौड़ हर कंवर

(16) रानी राठौड़ चारूमति बाई (औरंगजेब जिनसे विवाह करना चाहता था पर Maharana Raj Singh जी ने इनसे विवाह कर इनकी रक्षा की ) 

(17) रानी पंवार रामरसदे कंवर 

(18) रानी भटियाणी चंद्रमति बाई 

Maharana Raj Singh जी के 9 पुत्रों के नाम 

(1) महाराणा जयसिंह ( यह आगे चलकर मेवाड़ के Maharana बने ) 

(2) कुँवर भीमसिंह

(3) कुँवर इंद्रसिंह 

(4) कुँवर गज सिंह जी 

(5) कुँवर सुल्तानसिंह 

(6) कुँवर सरदार सिंह 

(7) कुँवर बहादुरसिंह

(8 ) कुँवर सूरतसिंह

(9) कुँवर तख्तसिंह

एक पुत्री 

अजब कंवर बाई

आशा है आपको Maharana Raj Singh जन्म एवं परिवार परिचय का वर्णन पसंद आया होगा। इसके संबंधित यदि आपका कोई प्रश्न हो तो नीचे comment में अवश्य बताये।

Haldighati ka yudh एवं मेवाड़ के प्रमुख योद्धाओं का वर्णन

Haldighati ka yudh भारतीय इतिहास के सबसे प्रमुख युद्धों में से एक है। Haldighati ka yudh तो अनिर्णायक रहा किन्तु यहा अनेक वीर योद्धा नें अपना शौर्य दिखाया और अपनी मातृभूमि के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।

Haldighati ka yudh


मेवाड़ की और से युद्ध करने वाले ऐसे ही कुछ प्रमुख योद्धा का वर्णन हमने हमारे इस article में किया है। जिन्होंने अपना जीवन मेवाड़ को समर्पित कर दिया।

Haldighati yudh में मेवाड़ के प्रमुख योद्धा -

Haldighati ka yudh


Raja Ram shah tomar एवं उनके पुत्र - 

Raja Ram shah tomar ग्वालियर के राजा थे। जब मुगलों नें ग्वालियर पर हमला कर ग्वालियर जीत लिया तब मेवाड़ नें ही Raja Ram shah tomar और उनके पुत्रों को राजकीय शरण दी थी। Raja Ram shah जी पुत्र कुँवर शालिवाहन तोमर का विवाह Maharana pratap नें अपनी बहन से करवाया था।

Raja Ram shah जी पुत्र कुँवर शालिवाहन तोमर, कुँवर भवानी तोमर, कुँवर प्रताप तोमर सहित अनेक तोमर वीरो नें अपने जीवन को मेवाड़ के लिये समर्पित कर दिया एवं अपना बलिदान दिया। 

Jhala man singh ( झाला मान सिंह ) -

Jhala Man singh बड़ी सादड़ी (झाला) ठीकाने से आते थे। जब Haldighati yudh में Maharana pratap के प्राणों पे संकट आया और मेवाड़ के हित में Maharana pratap को Haldighati ka yudh छोडकर जाना पड़ता है तब Jhala Man singh ने ही Maharana pratap का स्थान लिया। Jhala Man singh Maharana pratap जैसे दिखते थे।

जिस कारण Maharana pratap युद्धभूमि छोडकर जाने में सफल हो पाये। Jhala Man singh नें अपने प्राणों की आहुति देकर Maharana pratap की रक्षा की। 

Rawat krishna das chundavat (रावत कृष्ण दास चुंडावत) -

रावत कृष्ण दास चुंडावत ने ही जगमाल को हाथ पकड़ कर सिंहासन से नीचे उतारा था। यह सलूंबर के रावत थे। 

मेवाड़ की हरावल मैं रहकर रावत कृष्णदास चुंडावत जी ने मुगल सेना को बहुत दूर तक खदेड़ा। रावत कृष्णदास चुंडावत ने अपने पराक्रम से ऐसे ही कीर्ति प्राप्त की जैसे कि उनके पूर्वजों ने प्राप्त की थी। 

रणभूमि मैं इन्हें कोई भी मुगल मार नहीं पाया। ऐसा कहा जाता है की इन्होंने Maharana pratap के साथ ही युद्धभूमि से प्रस्थान करा था।

Panrava के Rana Punja (पानरवा के राणा पुंजा) - 

राणा पुंजा जी भीलो के सरदार थे। कुछ इतिहासकार इन्हें हल्दीघाटी में वीरगति पाने वाले योद्धाओं में से समझते हैं। इन्होंने Haldighati ka yudh लड़ा परंतु यह haldighati के yudh में वीरगति को प्राप्त नहीं हुए। 

इनकी मृत्यु तो Haldighati yudh के लगभग 34 वर्ष पश्चात हुई।

Hakim khan sur - 

Hakim khan sur ने मेवाड़ की हरावल का नेतृत्व किया था। Hakim khan sur शेरशाह सूरी के वंशज थे।

Hakim khan sur ने युद्ध से पहले कहा था कि आज इस पठान के हाथ से लगाम और तलवार दोनों नहीं छूटेगी।Haldighati ka yudh समाप्त हुआ एवं Hakim khan sur नें अपने प्राणों का बलिदान मेवाड़ के लिये दिया, किन्तु जब युद्ध के बाद उनके हाथ से तलवार व लगाम छुड़ाने का प्रयास किया गया तो भी उनके हाथ से उनकी तलवार व लगाम नहीं छूटी। 

Hakim khan sur को उनकी talwar के साथ दफनाया गया। 

ठाकुर भीम सिंह डोडिया ( Thakur bhim singh dodiya)- 

ठाकुर भीम सिंह डोडिया लावा सरदारगढ़ के ठाकुर थे। ठाकुर भीम सिंह जी ने अद्भुत पराक्रम एवं वीरता का परिचय हल्दीघाटी युद्ध में दिया।

ठाकुर भीम सिंह डोडिया ने कई मुगलों को मौत के घाट उतारा वे स्वयं मुगलों को मारते मारते अकबर के सेनापति Raja Man singh के हाथी के पास पहुंच गए उन्होंने भाले से Raja Man singh के हाथी पर प्रहार किया परंतु जवाबी कार्यवाही में वीरगति को प्राप्त हुए। इन्होंने अपने अद्भुत पराक्रम से अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षर से अंकित कराया। 

ठाकुर भीम सिंह डोडिया के साथ-साथ उनके दोनों पुत्रों एवं उनके दोनों भाइयों ने भी मेवाड़ के रक्षा, स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।

Man singh songara ( मान सिंह सोनगरा) - 

यह पाली से संबंध रखते थे। यह पाली के सोनगरा अखराज के पुत्र थे। यह Maharana pratap के मामा थे। 

मान सिंह जी नें Maharana pratap को सिंहासन दिलवाने ने अहम भूमिका निभाई थी। इनके वीरगति को प्राप्त होने के बाद इनके छोटे भाई Maharana pratap जी की सेवा में उपस्थित हुए। 

आशा है आप के लिए Haldighati ka yudh एवं इसमे भाग लेने वाले मेवाड़ के वीर योद्धाओं का वर्णन ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणादायी रहा होगा। इसके संबंध में आपका कोई प्रश्न हो तो comment में बताये।


Haldighati ka yudh भाग 2 दिवेर का युद्ध

Haldighati ka yudh भारत में लड़े गये सब से महान युद्धों में से एक है। आज हम आपको जिस yudh के बारे में बताने जा रहे उसको कई इतिहासकार Haldighati ka yudh भाग 2 भी कहते हैं इस युद्ध का नाम है दिवेर का युद्ध।दिवेर का युद्ध इसके संबधित सारे प्रश्नों के उत्तर आज हम आपको हमारे article में देने का प्रयास करेंगे। 

Haldighati ka yudh


Haldighati ka yudh, Maharana pratap एवं Akbar के बीच निर्णायक युद्ध नहीं था। Haldighati ka yudh तो मुगल सेना एवं Maharana pratap के बीच संघर्ष की शुरुआत थी। और इस संघर्ष को शक्ति प्रदान करने वाले युद्ध बना "दिवेर का युद्ध"। 

Haldighati yudh के बाद की स्थिति - 

Haldighati yudh के बाद मुगल सेना का उदयपुर , गोगुंदा , कुंभलगढ़ और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो चुका था। पर मुगल सेना Maharana pratap को ना तो पकड़ सकी और ना ही संपूर्ण मेवाड़ पर अपना अधिपत्य स्थापित कर सकी। 

Haldighati ka yudh 1576 मैं हुआ , 1577 से 1582 तक अकबर ने Maharana pratap को पकड़ने के लिए लगभग 1 लाख का सैन्य बल भेजा पर Maharana pratap को पकड़ने में असफल रहा।

अंग्रेजी इतिहासकारों के अनुसार Haldighati yudh का दूसरा भाग जिसे battle of dever ( दिवेर का युद्ध ) भी कहा जाता है। दिवेर का युद्ध मुगल सेना व मुगल बादशाह अकबर के लिए करारी हार सिद्ध हुआ। 

Maharana pratap द्वारा दिवेर युद्ध की योजना अरावली के जंगलों में बनाई थी। उन्होंने भामाशाह के द्वारा दी गई संपत्ति एवं भीलो की सहायता से नई सेना का निर्माण किया एवं छापे मार युद्ध पद्धति से लगातार मुगलों पर हमले किए एवं रसद और हथियार की लूट से मुगल सेना की हालात खराब कर दी। 

Haldighati yudh के लगभग 6 साल बाद 1582 दिवेर का युद्ध हुआ। विजयादशमी का दिवस था Maharana pratap ने अपनी sena को दो भागों में विभाजित कर दिया एक का नेतृत्व वे स्वयं कर रहे थे दूसरे भाग का नेतृत्व उनके जेष्ठ पुत्र राजकुमार Amar singh ji ( जो आगे चलकर मेवाड़ के Maharana बने ) कर रहे थे। अकबर की ओर से मुगल सेना का नेतृत्व अकबर का चाचा सुल्तान खा कर रहा था। 

राजकुमार Amar singh जी के नेतृत्व में Rajput सेना ने दिवेर के शाही थाने पर हमला किया यह हमला इतना भयंकर था कि मुगल सेना में हड़कंप मच गई राजकुमार Amar singh जी ने अद्भुत शौर्य दिखाते हुए मुगल सेनापति पर भाले का ऐसा प्रहार किया की भाला senapati और उसके घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धसा। 

Haldighati ka yudh


अपने सेनापति की ऐसी दुर्दशा देखते हुए मुगल सेना में भगदड़ मच गई Rajput सेना ने मुगल सेना को अजमेर तक खदेड़ा। 

युद्ध के पश्चात 36,000 मुगलों ने Maharana pratap एवं राजपूती सेना के आगे आत्मसमर्पण किया। इस विजय के पश्चात Maharana pratap ने कई महत्वपूर्ण दुर्ग एवं ठिकानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिनमें प्रमुख हैं कुंभलगढ़ , गोगुंदा , जावर , मदारिया आदि हैं। 

इसके पश्चात भी Maharana pratap ने मुगलों पर आक्रमण जारी रखें एवं चित्तौड़गढ़ को छोड़कर लगभग समूचे मेवाड़ के क्षेत्र पर जिन पर मुगलों ने अपना अधिकार स्थापित करा था उन्हें मुगलों से वापस छीन कर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। 

यहां तक की मेवाड़ से गुजरने वाले मुगल काफीलो को Maharana pratap को रकम देनी पड़ती थी। 

आशा है आपको Haldighati ka yudh भाग 2 जिसे दिवेर का युद्ध कहा जाता है, इसके संबधित सारे प्रश्नों के उत्तर आपको मिल गये होंगे। इसके संबंध में आपका कोई प्रश्न हो नीचे comment में बताये।

Haldighati ka yudh एवं Maharana pratap का युद्धभूमि छोडकर जाने का वर्णन

Haldighati ka yudh मुगलों एवं Maharana pratap के बीच निर्णायक युद्ध नहीं था। यह तो मुगलों एवं मेवाड़ के बीच वर्षो चल रहे है संघर्ष का एक हिस्सा थी। आप को पता ही होगा haldighati ka yudh मेवाड़ एवं मुगलों के बीच हुआ था। मुगलों के सेनापति Raja Man singh थे। वहीं मेवाड़ के सेनापति Hakim khan sur थे। 

Haldighati ka yudh

इस युद्ध में एक समय ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई की Maharana pratap को युद्धभूमि छोडकर जाना पड़ा वो परिस्थिति क्यों निर्मित हुई एवं Maharana pratap का Haldighati ka yudh छोडकर जाना क्यों आवश्यक था इसके बारे संक्षिप्त वर्णन आप को हमारे article में उपलब्ध कराने का प्रयास करेंगे।

Haldighati युद्धभूमि से Maharana pratap के प्रस्थान का कारण - 

Haldighati ka yudh निरन्तर लगातार चार घंटे से चल रहा था। Maharana pratap एवं उनके वीर योद्धा निरन्तर युद्ध कर रहे थे। परन्तु Maharana pratap की सेना संख्या में मुगल सेना से बहुत कम थी। Maharana pratap के कई प्रमुख साथी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे, स्वयं Maharana pratap को शरीर पर कई घाव लगे थे। 
तब Maharana pratap के प्रमुख सहयोगियों ने Maharana pratap को कहा की आप युद्धभूमि छोडकर चले जाये। Maharana pratap ने इसका विरोध करा। विरोध करना स्वाभाविक भी था, क्योंकि Maharana pratap एक सच्चे Rajput एवं एक वीर योद्धा थे। Maharana pratap तो खुशी से अपना जीवन मातृभूमि को समर्पित करना चाहते थे।

तब उनके सहयोगियों ने कहा "राणा जी haldighati ka yudh तो स्वाधीनता के संग्राम का एक छोटा सा भाग है अगर आपने आज युद्ध में अपना सर्वस्व बलिदान दे दिया तो मेवाड़ पुनः कभी स्वतन्त्र नहीं हो पाएगा। परन्तु अगर आप जीवित रहे तो मेवाड़ की स्वतंत्रता की आस जिवित रहेगी आपको मेवाड़ की खातिर युद्धभूमि छोडकर जाना ही होगा"। 

बड़ी मुश्किल से से Maharana pratap माने, अब प्रश्न था Maharana pratap को सुरक्षित युद्धभूमि से निकाल जाये। 

Jhala Man singh का बलिदान - 

Jhala Man singh, Maharana pratap के प्रमुख सहयोगी थे। Jhala Man singh की सात पीढ़ी ने मेवाड़ राजपरिवार के लिये अपने जीवन का बलिदान दिया था।  

Jhala Man singh, Maharana pratap जेसे दिखते थे। जब Maharana pratap ने युद्ध भूमि से प्रस्थान करा तब Jhala Man singh ने Maharana pratap का मुकुट पहन लिया एवं युद्ध करने लगे। उन्हें देख ऐसा लग रहा था मानो स्वयं Maharana pratap युद्ध कर रहे हो। 

मुगल सेना को लगा कि Jhala Man singh ही Maharana pratap है और मुगल सेना ने उन पर पूरी शक्ति से प्रहार करना शुरू कर दिया। इस दौरान Maharana pratap युद्ध भूमि से प्रस्थान कर गये। 

Jhala Man singh ने अपने प्राणों का बलिदान देकर Maharana pratap की रक्षा की।

Maharana pratap के प्रिय घोड़े चेतक का बलिदान-

Maharana pratap के घोड़े चेतक के पैर में युद्ध के दौरान घाव लग गया था। किन्तु फिर भी चेतक तेज गति से Maharana pratap को युद्धभूमि से बाहर ले गया। 

Haldighati ka yudh



Maharana pratap को लेकर चेतक तेज गति से आगे बढ़ रहा था तभी एक नाला लगभग 26 फीट का बीच में आ गया तभी चेतक ने बिना एक पल की देरी किये उस नाले को पार कर गया। 

चेतक ने अपने स्वामी की रक्षा तो कि किन्तु स्वयं घायल होने के कारण वीरगति को प्राप्त हो गया। 

Shakti singh जी एवं Maharana pratap का मिलन - 

जब Maharana pratap अपने अश्व चेतक की मृत्यु का शौक मना रहे थे, तब 2 मुगल जिन्होंने Maharana pratap को युद्धभूमि  छोडकर जाते हुए देख लिया जिनमे से एक का नाम मुल्तान खान था और एक उसका साथी दोनों ने पीछे से Maharana pratap पर आक्रमण कर दिया। तब Shakti singh जी ने उन दोनों को मार गिराया, दोनों भाईयों के बीच जो मतभेद था वह दूर हो गया। Shakti singh जी ने Maharana pratap को अपना घोड़ा दिया और कहा दादाभाई आप प्रस्थान करे उसके पहले की कोई और मुगल यहा आये। 

निष्कर्ष -

Maharana pratap का Haldighati ka yudh छोड़ कर जाना अत्यंत आवश्यक था क्योंकि अगर Maharana pratap को कुछ हो जाता तो मेवाड़ को मुगलों से स्वतंत्र होना असंभव हो जाता। Maharana pratap पर उस समय पूरे मेवाड़ की रक्षा का भार था इसलिए उन्होंने जो निर्णय लिया वो उचित था। 

आशा है आपको Maharana pratap का Haldighati ka yudh एवं युद्धभूमि छोड़कर जाने के कारण एवं उनके निर्णय के संबंधित सारे प्रश्नों के उत्तर आपको मिल गये होगे। इसके संबंध में यदि आपका कोई प्रश्न हो तो मुझे comment me बताये।